Error loading page.
Try refreshing the page. If that doesn't work, there may be a network issue, and you can use our self test page to see what's preventing the page from loading.
Learn more about possible network issues or contact support for more help.

Kaaghaz Par Aasmaan

ebook

तहज़ीबी ज़मीर का तख़्लीक़ी चेहरा शकील जमाली के जिस शेर की बलीग़ रमज़ियत ने उनकी तख़्लीक़ी हस्सासियत को ज़हन में ताबदार किया है, वो शेर यूँ है: मैं अपने घर का अकेला कमाने वाला हूँ मुझे तो सांस भी आहिस्तगी से लेना है ख़ुदा ए सुख़न मीर तक़ी मीर के मिसरे: "ले साँस भी आहिस्ता से हम आहंग" ये शेर मेरे लाशऊर में अक्सर गूंजता रहता है और इसकी वजह शायद ये है के ये उस कैफियत का शेर है जिस से बनी नो-ए-इंसान का हर फ़र्द गुज़रता रहा है, ज़िन्दगी की हक़ीक़त बयान करता हुआ ये शेर ज़मानी व मकानी तअईयुनात से मावरा हर फ़र्द के एहसास का हिस्सा है कि आज के दौर का हर शख़्स अदम तहफ़्फ़ुज़, ख़ौफ़ और बे यक़ीनी का शिकार है, इस नोईयत के बहुत से शेर शकील जमाली के यहाँ मिलते हैं और इसी कैफ़ियत की शायरी ने शकील जमाली को ज़हनों में ज़िंदा किया हुआ है, ये उनकी खुश बख़्ती है कि उनके शेर सफ़र करते हुए उन ज़हनी मन्तिक़ों तक पहुंचे हैं जहाँ से अशआर को ज़िन्दगियाँ नसीब होती हैं वरना अक्सर ख़ास ज़हनों,इलाक़ों की सियाहत में ही शेरों की उम्र गुज़र जाती है, इसी एहसास को समेटे हुए शकील जमाली का एक शेर है: सौ ग़ज़लें होती हैं और मर जाती हैं इक मिसरा तारीख़ रक़म कर देता है और यर हक़ीक़त है के सिर्फ़ एक मिसरा या एक शेर ने बहुत से शायरों को ज़िंदा ए जावेद कर दिया है, राम नारायण मोज़ूँ सिर्फ़ इस शेर की वजह से अदब की तारीख़ में ज़िंदा हैं: ग़ज़ालाँ तुम तो वाक़िफ़ हो कहो मजनूँ के मरने की दिवाना मर गया आख़िर को वीराने पे क्या गुज़री शकील जमाली के यहाँ भी हयातयाती तवानाई से भरपूर अशआर मिलते हैं और उन्हीं शेरो ने उन्हें तनक़ीदी मर्कज़ह में शामिल किया है, वो अंबोह का हिस्सा नहीं है, भीड़ से अलग इनकी तख़्लीक़ी शिनाख़्त है, शकील जमाली का अपना रंग व आहंग है जो दूर से ही पहचाना जाता है: हर इक आंसू की क़ीमत जानती है ग़ज़ल शायर का दुःख पहचानती है हयातो-कायनात के मुशाहिदे से जो तजरुबे और मनाज़िर उनके हिस्से में आए हैं, उन तजरुबों को उन्होंने इज़हार की ज़बान अता की है, हर वो जज़्बा जो इंसानी वजूद से तअल्लुक़ रखता है, वो उनके तख़्लीक़ी बयानिया का हिस्सा बना है, ' वज़ए-एहतियात ' की वजह से न तो किसी जज़्बे के जनीन का इसक़ात हुआ है और न ही किसी जज़्बे ने ख़ुदकुशी की है, हर उस जज़्बे को उनके शेरों में ज़िन्दगी मिली है जिसका हमारे मआशरती वजूद से रिश्ता है, इस लिए उनके यहाँ जज़्बों की वसीइ तर कायनात नज़र आती है, उनके जज़्बों की साँसों में खुनकी या हरारत जो भी है, वो बिलकुल फ़ितरी है, जज़्बे में किसी क़िस्म की मिलावट, आमेज़िश या तसन्नो नहीं है, मुशाहिदे और तजरुबे से उन जज़्बों की सूरतगरी हुई है इसीलिए ये ज्ज़बे मुख़्तलिफ़ रंग और रूप में सामने आए हैं: सफ़र दो कश्तियों में आदमी कर ही नहीं सकता मोहब्बत को बचाने में क़बीला छूट जाता है __________ हम समन्दर से निकल आए तो दलदल में गिरे सर उसूलों से बचाया तो वफ़ाओं में गया ये आज के मसाइल की शायरी है, इक्कीसवीं सदी ने बहुत से नए मसाइल को जन्म दिया है, साइंस व टेकनोलोजी की तरक़्क़ी और ग्लोबलाइज़ेशन की वजह से बहुत से इंसानी मसअले वजूद में आए हैं, दहशत, वहशत, मादीयत, सारफ़ियत, फ़र्द की तन्हाई, बेचारगी इक्कीसवीं सदी में इंसानी वजूद से बहुत से अल्मीए जुड़ गए हैं, शकील जमाली की शायरी उन्हीं अल्मीयों का इज़हार है मुआशरे के तज़ादात,बदलती क़दरी तरजीहात को भी उन्होंने अपनी शायरी का मोज़ूऊ बनाया है, जदीद इंसान के ज़हन ओ शऊर की शिकस्तो-रेख़्त बेघरी का कर्ब, भीड़ में अकेलापन——-वो तमाम मसाइल और मोज़ूआत जो इंसान के समाजी, मुआशरती, इक़्तसादी और सियासी वजूद से जुड़े हुए हैं, फ़र्द की इन तमाम इकाईयों का मजमूआ इनके शेरों में है, शकील जमाली का मोज़ूआती केनवस वसीई है, मोज़ूआत में तनव्वो और रंगा रंग्गी है, आज के एहद का आशोब उनके मर्कज़ी शेरी हवाले में शामिल है, मुकम्मल तौर पर मुआशरे से मरबूत ये शायरी किसी भी ज़ावीए से मुज़्महिल या मुंजमिद नज़र नहीं आती बल्कि मज़बूत और मुतहर्रिक होने का एहसास दिलाती है, शकील जमाली ने एक कूज़ागर की तरह अपने ज़हनी ख़लिये में रक़्स करने वाले अल्फ़ाज़ को मोज़ूँ मुतनासिब साँचा अता किया है, लफ़्ज़ों को सूरत के साथ शख़्सियत में ढाला है, उनकी शायरी में अल्फ़ाज़ अपने शख़्सी और किरदारी औसाफ़ के साथ नज़र आते हैं, उनके लफ़्ज़ बर्फ़ज़दा नहीं बल्कि हरारत आमेज़ हैं, उनके अल्फ़ाज़ उनके ख़्यालात...


Expand title description text
Publisher: Anybook

Kindle Book

  • Release date: July 21, 2021

OverDrive Read

  • Release date: July 21, 2021

EPUB ebook

  • File size: 277 KB
  • Release date: July 21, 2021

Formats

Kindle Book
OverDrive Read
EPUB ebook

Languages

Hindi

तहज़ीबी ज़मीर का तख़्लीक़ी चेहरा शकील जमाली के जिस शेर की बलीग़ रमज़ियत ने उनकी तख़्लीक़ी हस्सासियत को ज़हन में ताबदार किया है, वो शेर यूँ है: मैं अपने घर का अकेला कमाने वाला हूँ मुझे तो सांस भी आहिस्तगी से लेना है ख़ुदा ए सुख़न मीर तक़ी मीर के मिसरे: "ले साँस भी आहिस्ता से हम आहंग" ये शेर मेरे लाशऊर में अक्सर गूंजता रहता है और इसकी वजह शायद ये है के ये उस कैफियत का शेर है जिस से बनी नो-ए-इंसान का हर फ़र्द गुज़रता रहा है, ज़िन्दगी की हक़ीक़त बयान करता हुआ ये शेर ज़मानी व मकानी तअईयुनात से मावरा हर फ़र्द के एहसास का हिस्सा है कि आज के दौर का हर शख़्स अदम तहफ़्फ़ुज़, ख़ौफ़ और बे यक़ीनी का शिकार है, इस नोईयत के बहुत से शेर शकील जमाली के यहाँ मिलते हैं और इसी कैफ़ियत की शायरी ने शकील जमाली को ज़हनों में ज़िंदा किया हुआ है, ये उनकी खुश बख़्ती है कि उनके शेर सफ़र करते हुए उन ज़हनी मन्तिक़ों तक पहुंचे हैं जहाँ से अशआर को ज़िन्दगियाँ नसीब होती हैं वरना अक्सर ख़ास ज़हनों,इलाक़ों की सियाहत में ही शेरों की उम्र गुज़र जाती है, इसी एहसास को समेटे हुए शकील जमाली का एक शेर है: सौ ग़ज़लें होती हैं और मर जाती हैं इक मिसरा तारीख़ रक़म कर देता है और यर हक़ीक़त है के सिर्फ़ एक मिसरा या एक शेर ने बहुत से शायरों को ज़िंदा ए जावेद कर दिया है, राम नारायण मोज़ूँ सिर्फ़ इस शेर की वजह से अदब की तारीख़ में ज़िंदा हैं: ग़ज़ालाँ तुम तो वाक़िफ़ हो कहो मजनूँ के मरने की दिवाना मर गया आख़िर को वीराने पे क्या गुज़री शकील जमाली के यहाँ भी हयातयाती तवानाई से भरपूर अशआर मिलते हैं और उन्हीं शेरो ने उन्हें तनक़ीदी मर्कज़ह में शामिल किया है, वो अंबोह का हिस्सा नहीं है, भीड़ से अलग इनकी तख़्लीक़ी शिनाख़्त है, शकील जमाली का अपना रंग व आहंग है जो दूर से ही पहचाना जाता है: हर इक आंसू की क़ीमत जानती है ग़ज़ल शायर का दुःख पहचानती है हयातो-कायनात के मुशाहिदे से जो तजरुबे और मनाज़िर उनके हिस्से में आए हैं, उन तजरुबों को उन्होंने इज़हार की ज़बान अता की है, हर वो जज़्बा जो इंसानी वजूद से तअल्लुक़ रखता है, वो उनके तख़्लीक़ी बयानिया का हिस्सा बना है, ' वज़ए-एहतियात ' की वजह से न तो किसी जज़्बे के जनीन का इसक़ात हुआ है और न ही किसी जज़्बे ने ख़ुदकुशी की है, हर उस जज़्बे को उनके शेरों में ज़िन्दगी मिली है जिसका हमारे मआशरती वजूद से रिश्ता है, इस लिए उनके यहाँ जज़्बों की वसीइ तर कायनात नज़र आती है, उनके जज़्बों की साँसों में खुनकी या हरारत जो भी है, वो बिलकुल फ़ितरी है, जज़्बे में किसी क़िस्म की मिलावट, आमेज़िश या तसन्नो नहीं है, मुशाहिदे और तजरुबे से उन जज़्बों की सूरतगरी हुई है इसीलिए ये ज्ज़बे मुख़्तलिफ़ रंग और रूप में सामने आए हैं: सफ़र दो कश्तियों में आदमी कर ही नहीं सकता मोहब्बत को बचाने में क़बीला छूट जाता है __________ हम समन्दर से निकल आए तो दलदल में गिरे सर उसूलों से बचाया तो वफ़ाओं में गया ये आज के मसाइल की शायरी है, इक्कीसवीं सदी ने बहुत से नए मसाइल को जन्म दिया है, साइंस व टेकनोलोजी की तरक़्क़ी और ग्लोबलाइज़ेशन की वजह से बहुत से इंसानी मसअले वजूद में आए हैं, दहशत, वहशत, मादीयत, सारफ़ियत, फ़र्द की तन्हाई, बेचारगी इक्कीसवीं सदी में इंसानी वजूद से बहुत से अल्मीए जुड़ गए हैं, शकील जमाली की शायरी उन्हीं अल्मीयों का इज़हार है मुआशरे के तज़ादात,बदलती क़दरी तरजीहात को भी उन्होंने अपनी शायरी का मोज़ूऊ बनाया है, जदीद इंसान के ज़हन ओ शऊर की शिकस्तो-रेख़्त बेघरी का कर्ब, भीड़ में अकेलापन——-वो तमाम मसाइल और मोज़ूआत जो इंसान के समाजी, मुआशरती, इक़्तसादी और सियासी वजूद से जुड़े हुए हैं, फ़र्द की इन तमाम इकाईयों का मजमूआ इनके शेरों में है, शकील जमाली का मोज़ूआती केनवस वसीई है, मोज़ूआत में तनव्वो और रंगा रंग्गी है, आज के एहद का आशोब उनके मर्कज़ी शेरी हवाले में शामिल है, मुकम्मल तौर पर मुआशरे से मरबूत ये शायरी किसी भी ज़ावीए से मुज़्महिल या मुंजमिद नज़र नहीं आती बल्कि मज़बूत और मुतहर्रिक होने का एहसास दिलाती है, शकील जमाली ने एक कूज़ागर की तरह अपने ज़हनी ख़लिये में रक़्स करने वाले अल्फ़ाज़ को मोज़ूँ मुतनासिब साँचा अता किया है, लफ़्ज़ों को सूरत के साथ शख़्सियत में ढाला है, उनकी शायरी में अल्फ़ाज़ अपने शख़्सी और किरदारी औसाफ़ के साथ नज़र आते हैं, उनके लफ़्ज़ बर्फ़ज़दा नहीं बल्कि हरारत आमेज़ हैं, उनके अल्फ़ाज़ उनके ख़्यालात...


Expand title description text