एक अना अब भी ज़िन्दा है..
बड़ी बेअदब है अदब की दुनिया : पता ही न चले कब कौन गिरह लगा गया। हाल-फ़िलहाल हालत और हालात ये कि जो जितना बेअदब, वो उतना बड़ा अदीब.. और फिर व्हाट्सअप-फ़ेसबुक का दौर - जितने नामों में शायर-कवि बतौर उपसर्ग मिले, उनमें से प्रायः शत-प्रतिशत को इसके अलावा सब जानना। चेहरा ही नहीं कहीं - मुखौटे ही मुखौटे, मुखौटों पर मुखौटे! प्याज के वल्कों की तरह : जितना उतारते चले जाओ, बसाते और अँसुआते चले जाओगे। ऐसे में कोई नूरानी रूह अपने चिर चेहरे में चली आये तो उसको सिया सचदेव समझ लेना।
सिया सचदेव को सियासत वाले समझने से रहे। सिया के सत् को समझने वालों को ही उन्हें समझने का अधिकार है। उनके होने की गवाही उनकी शफ़्फ़ाक़ और प्रशान्त पाक़ीज़गी है। उर्दू की शायरी में वे हिन्दी की महादेवी वर्मा हैं। मुझे माफ़ न किया जाये मेरे ये कहते हुए कि कवयित्रियाँ कहलाने वाली अधिकतर औरतें फ़ेक हैं। मेकअप से लेकर पैकअप तक ही इनकी गति है, बाक़ी का काम तो रेस्पॉन्सर और स्पॉन्सर ही कर रहे हैं। ये सब प्रस्तोतियाँ हैं : लिसलिसे लास्य के लबादे में लिपटी आत्मिकतः अभद्र अदाकाराएँ - अपने-अपने स्वार्थों के वशीभूत निर्देशकों के इशारों पर नाचती-गाती-इठलाती हुई हाँड़-मांस की अभिशप्त कठपुतलियाँ। इस विडम्बनापूर्ण विषम समय में भी जिसने स्टेज से अधिक मेज़ को अपनी लेखनीय प्राथमिकता रखा, उस सिया सचदेव का अन्तस् से अभिनन्दन भी हम खुलकर न कर सकें तो निश्चयतः निहायत कायर हैं हम।
उनका कहन कुछ ऐसा है कि मैं मर-मर जाता हूँ, मर-मर जीता हूँ। वे मेरे साथ दुर्घटित ज़्यादातर घटनाओं की यथासम्भव और प्रायः यथाभाव काव्यानुवादक हैं। बेबस निःशब्द आहें उनकी कविता में क़दम-क़दम कराहती नहीं, समाधिस्थ मिलेंगी। उनकी शायरी के प्रभाव का परिणाम वारुणी के साग़र में निढालना के उपकरण नहीं, करुणा की वरुणा-प्रवाहणा के समीकरण रचता है। न केवल कथन की नवीनता के अन्वेषण में ही उनको दैवी नैपुण्य प्राप्त है प्रत्युत शिल्प पर भी उनका सहज अधिकार है। आज जब कहन और तग़ज़्ज़ुल लफ़्ज़ तक से शायराएँ और अदीबें अपरिचित हैं, तब सियाजी का फ़न-ए-सुखन और फ़न-ए-अरूज़ सुखानुभूति भी कराता है और आश्वस्ति भी प्रदान करता है कि हाँ, अभी महिला रचनाकारों में कुछ नाम तो ऐसे हैं, जिनसे आस बँधी रहेगी - जो शायरी से नहीं, शायरी जिनसे चलती रहेगी और फिर डायरी से चलना अलग बात है और शायरी से चलना अलग बात। आज जब कविता की कलंकिनी लंकिनियाँ मिलते गिनी भी न जा रही हों, टंच माल उड़ाने की जुगत-मति-धृति और व्यवहृति वाली मञ्च-प्रपञ्च की आसुरी सुरसाओं के मध्य सिया सचदेव से भेंटाना अहोभाग्य ही होता है।
लिप्साओं वाले मूल्य और मूलहीन तथाकथित कविताओं के चालू दौर में मूल्यवत्ता और मौलिकता उनकी सृजनात्मकता का हठ है। सब धान बाईस पसेरी करने वाले व्यापारियों!उनका न अब कुछ हो सकता है और न कोई कुछ कर सकता है क्योंकि ख़ुद उनको वह करना है निरन्तर, जो उनकी आत्मा में उपस्थित परमचेतना की गवाही है, जो उनकी आत्मा का आदेश है। मैं उनके अक्षरभाव के इस प्रकाशनपर्व पर अपनी आशंसाएँ आत्मभाव से सप्रणति प्रेषित करता हूँ..
डा. राहुल अवस्थी
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